Best Sanskrit Shlok With Meaning - संस्कृत हमारे देश का सबसे प्राचीन भाषा है। इसी से हिंदी भाषा का निर्माण हुआ है। लेकिन अब धीरे-धीरे खुद संस्कृत भाषा विलुप्त होता जा रहे है। इसके बावजूद अभी भी कुछ स्थानों पर संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता है। अभी भी Sanskrit Shlok (संस्कृत श्लोक) बोला जाता है। पूजा-पाठ से लेकर कुछ परीक्षाओं में भी Sanskrit mein Shlok का मतलब पूछ दिया जाता है।
यहाँ तक कि कुछ इंटरव्यू में भी Sanskrit Ke Shlok से सम्बंधित प्रश्न पूछ दिए जाते है। इसीलिए यहाँ मैं आपको कुछ Famous Sanskrit Shlok उसके अर्थ के साथ बताऊंगा। जिससे आप उन संस्कृत के श्लोक समझने में आसानी होगी। हमारे हिंदुयों का धर्म ग्रन्थ "गीता" वो भी संस्कृत में ही लिखा गया था। और कुछ गीता के Sanskrit Shlok हमलोग अभी भी कभी-कभी कुछ वाक्यो को पूरा करने के लिए बोल देते हैं।
पहले के जमाने के लोग अभी भी अपने कुछ वाक्य के पंक्ति को पूरा करने या अपने वाक्य को समझाने के लिए Sanskrit Shlok का प्रयोग कर देते हैं। ताकि वे कम शब्दों का उपयोग करके ज्यादा से ज्यादा बात को समझा सके।
आज के इस लेख में हम सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला Sanskrit mein Shlok और गीता के उन संस्कृत श्लोकों का भी यहाँ हम वणर्न करेंगे जो आपको कभी भी उपयोग करने को मिल सकता है। या फिर ऐसे श्लोक जो आपसे कोई भी उसका अर्थ पूछ दे सकता है। इसीलिए ये Sanskrit Shlok With Meaning को एक बार पढ़कर ज़रूर समझ ले। ताकि आपको हमेशा यह श्लोक याद रहे।
1100+ Popular Sanskrit Shlok हिंदी अर्थ सहित
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात॥
अर्थात् : हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान की दूर करने वाला हैं- वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद्दुःख भाग्भवेत।।
अर्थात् : सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वरदान दो!
उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
यथा सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति न मुखेन मृगाः।।
अर्थ- कार्य उद्यम करने से पूर्ण होते हैं, मन में इच्छा करने से नहीं। जैसे सोते हुए शेर के मुंह में मृग अपने आप प्रवेश नहीं कर जाते।
काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।
अर्थ– हर विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखाने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एक्राग्रता और केन्द्रित ध्यान एक आहत में खुलने वाली कुते के समान नींद, गृहत्यागी और यहाँ पर अल्पाहारी का मतबल अपनी आवश्यकता के अनुसार खाने वाला जैसे पांच लक्षण होते है।
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
अर्थ- ऐसे व्यक्ति जो विभिन्न देशो में यात्रा करते है और विद्वान लोगो की सेवा करते है, उनकी बौद्धिक क्षमता का विस्तार ठीक उसी तरह से होता है, जिस प्रकार तेल का एक बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है |
गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
भावार्थ: गुरु ही ब्रह्मा हैं, जो सृष्टि निर्माता की तरह परिवर्तन के चक्र को चलाते हैं। गुरु ही विष्णु अर्थात रक्षक हैं। गुरु ही शिव यानी विध्वंसक हैं, जो कष्टों से दूर कर मार्गदर्शन करते हैं। गुरु ही धरती पर साक्षात परम ब्रह्मा के रूप में अवतरित हैं। इसलिए, गुरु को सादर प्रणाम।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||
भावार्थ:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसका आलस्य है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा)कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |
सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम्।
शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः।।
अर्थ- सत्य, विनय, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और वाक्पटुता ये दस लक्षण स्वर्ग के कारण हैं।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
अर्थ – व्यक्ति के मेहनत करने से ही उसके काम पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से उसके काम पूरे नहीं होते। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थ – अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना। ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।
जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु: धर्मचर्यामसूया
अर्थात् : वृद्धावस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पहुंचने के बाद मनुष्य की सुंदरता, धैर्य, इच्छा, मृत्यु, धर्म का आचरण, पवित्रता, क्रोध, प्रतिष्ठा, चरित्र, बुरी संगति, लज्जा, काम और अभिमान सब का नाश कर देता है
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
अर्थ- सभी प्रकार के संग्रह का अंत क्षय है। बहुत ऊंचे चढ़ने के अंत नीचे गिरना है। संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,
विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
भावार्थ:- कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती, अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ, कंगन धारण करने से सुन्दर नहीं होते, उनकी शोभा दान करने से बढ़ती हैं | सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित में किये गये कार्यों से शोभित होता हैं।
यत्र स्त्री यत्र कितवो बालो यत्रानुशासिता।
मज्जन्ति तेवशा राजन् नद्यामश्मप्लवा इव।।
अर्थ- जहां का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है। वहां के लोग नदी में पत्थर की नाव में बैठने वालों की भांति विवश होकर विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं।
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥
अर्थात् : सभी कीमती रत्नों से कीमती जीवन है जिसका एक क्षण भी वापस नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इसे फालतू के कार्यों में खर्च करना बहुत बड़ी गलती है।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद् गजभूषणं।
चातुर्यम् भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणं।।
अर्थ – घोड़े की शोभा उसके वेग से होती है और हाथी की शोभा उसकी मदमस्त चाल से होती है।नारियों की शोभा उनकी विभिन्न कार्यों में दक्षता के कारण और पुरुषों की उनकी उद्योगशीलता के कारण होती है।
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।
अर्थात् : धैर्य, मन पर अंकुश, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, मधुर वाणी और मित्र से द्रोह न करना यह सात चीजें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली होती हैं इसलिए हमेशा जीवन में इनका अनुसरण करना चाहिए
विभवे भोजने दाने तिष्ठन्ति प्रियवादिनः।
विपत्ते चागते अन्यत्र दृश्यन्ते खलु साधवः।।
अर्थ- मनुष्य के सुख- समृद्धि के समय, खान- पान और मान के समय चिकनी चुपड़ी बातें करने वालों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन विपत्ति के समय केवल सज्जन पुरुष ही साथ दिखाई पड़ते हैं।
Geeta Shlok In Sanskrit - गीता सांस्कृत श्लोक
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
भावार्थ: श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, ऋषियों और संतों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं सदियों से धरती पर पैदा हुआ हूं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)
हिंदी अनुवाद: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||
Bhagavad Gita chapter 2 verse 15
Hindi Translation:
हे अर्जुन ! जो पुरुष सुख तथा दुःख मैं विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति योग्य है ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 62)
हिंदी अनुवाद: विषयों वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।
भावार्थ: अर्जुन कहते हैं कि मैं यह भी नहीं जानता कि क्या सही है और क्या नहीं – हम उन पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं या उनसे जीतना चाहते हैं। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हम कभी नहीं जीना चाहेंगे, फिर भी वे सभी हमारे सामने युद्ध के मैदान में खड़े हैं।
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||
Bhagavad Gita chapter 2 verse 38
Hindi Translation:
हे अर्जुन ! तुम सुख या दुःख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध करो । ऐसा करने से तुम्हे कोई पाप नहीं लगेगा ।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
(अध्याय 2 श्लोक 23)
अर्थ:- अर्थार्थ आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39)
इस श्लोक का अर्थ है: श्रद्धा(faith) रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों (Senses) पर संयम रखने वाले मनुष्य, अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त कर लेते हैं|
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||
Bhagavad Gita chapter 6 verse 9
Hindi Translation:
हे अर्जुन ! जो मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, इर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को सामान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)
हिंदी अनुवाद: हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
भावार्थ: श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, सफलता और असफलता के मोह को त्याग कर, अपने कार्य को पूरे मन से समभाव से करो। समभाव की इस भावना को योग कहते हैं।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्भुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 63)
अर्थ: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही नाश कर बैठता है।
Sanskrit Mein Shlok On Karm- Sanskrit Shlok Image
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ||
भाई अपने भाई से कभी द्वेष नहीं करें, बहन अपनी बहन से द्वेष नहीं करें, समान गति से एक दूसरे का आदर-सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
|जिनका हृदय बड़ा होता है, उनके लिए पूरी धरती ही परिवार होती है और जिनका हृदय छोटा है, उनकी सोच वह यह अपना है, वह पराया है की होती है।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
अर्थात् : गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
वाणी रसवती यस्य, यस्य श्रमवती क्रिया । लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।
अर्थार्थ:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसका आलस्य है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता.
भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गात अपि गरीयसी।।
अर्थात् : भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता है। माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। (इसलिए उनका हमेशा आदर और सम्मान करना चाहिए)
Education Sanskrit Shlok With Meaning
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
अर्थात् : गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
अर्थ – व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन आलस्य होता है, व्यक्ति का परिश्रम ही उसका सच्चा मित्र होता है। क्योंकि जब भी मनुष्य परिश्रम करता है तो वह दुखी नहीं होता है और हमेशा खुश ही रहता है।
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते ॥ भावार्थ :
एक मुर्ख की पूजा उसके घर में होती है, एक मुखिया की पूजा उसके गाँव में होती है, राजा की पूजा उसके राज्य में होती है और एक विद्वान की पूजा सभी जगह पर होती है।
दुर्जन: परिहर्तव्यों विद्यालकृतो सन
मणिना भूषितो सर्प: किमसो न भयंकर:!!!
(दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावानभि हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता!!!)
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः। यत्र तास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः ॥ भावार्थ :
जहाँ पर हर नारी की पूजा होती है वहां पर देवता भी निवास करते हैं और जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती, वहां पर सभी काम करना व्यर्थ है।
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।
अर्थ – लेना, देना, खाना, खिलाना, रहस्य बताना और उन्हें सुनना ये सभी 6 प्रेम के लक्षण है।
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थ – अपमान करके देना, मुंह फेर कर देना, देरी से देना, कठोर वचन बोलकर देना और देने के बाद पछ्चाताप होना। ये सभी 5 क्रियाएं दान को दूषित कर देती है।
आदि देव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर:।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तुते ।1।
अर्थात् : हे आदिदेव भास्कर! (सूर्य का एक नाम भास्कर भी है), आपको प्रणाम है, आप मुझ पर प्रसन्न हो, हे दिवाकर! आपको नमस्कार है, हे प्रभाकर! आपको प्रणाम है।
अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥ भावार्थ :
आलसी व्यक्ति को विद्या कहां, मुर्ख और अनपढ़ और निर्धन व्यक्ति को मित्र कहां, अमित्र को सुख कहां।
अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णा नैव परित्यजेते
शनै: शनैश्व भोक्तव्य स्वयं वित्तमुपार्जितम्!!!
(अत्यधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिये पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नही करना चाहिए अपने कमाए हुए धन का धीरे धीरे उपभोग करना चाहिये!!!)
Sanskrit Shlok on Karm With Meaning in Hindi
कर्मणामी भान्ति देवाः परत्र कर्मणैवेह प्लवते मातरिश्वा। अहोरात्रे विदधत् कर्मणैव अतन्द्रितो नित्यमुदेति सूर्यः।। कर्म से ही देवता चमक रहे हैं। कर्म से ही वायु बह रही है। सूर्य भी आलस्य से रहित कर्म करके नित्य उदय होकर दिन और रात का विधान कर रहा है।।
#श्रयान् स्वधर्मो विगुण परधर्मात् स्वनुष्टितात्
स्वधर्म निधन श्रेय: परधर्मो भयावह:!!!
(अपने नियत्कर्मो को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मो को भलीभांति करने से श्रेश्कर हैं स्वीय कर्मो को करते हुए मरना पराये कर्मो में प्रवत होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर हैं क्योंकि अन्य किसी मार्ग का अनुसरण भयावह होता हैं!!!)
बह्मविद्यां ब्रह्मचर्यं क्रियां च निषेवमाणा ऋषयोSमुत्रभान्ति।। उद्योग० 29/16ऋषि भी वेदज्ञान, ब्रह्मचर्य और कर्म का पालन करके ही तेजस्वी बनते हैं।
सन्यास: कर्मयोगश्व नि: श्रेयसकरावुभौ
तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते!!
(मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म
दोनों ही उत्तम हैं किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ हैं!!!)
प्रायशो हि कृतं कर्मं नाफलं दृश्यते भुवि। अकृत्वा च पुनर्दुःखं कर्म पश्येन्ममहाफलम्।। सौप्ति० 2/13 प्राय देखने में आता है कि इस संसार में किए गए कर्म का फल मिलता है। काम न करने से दुख ही मिलता है । कर्म महान फलदायक होता है।।
न कृतत्व न कर्मणि लोकस्य सृजति प्रभु
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु पर्वतरते!!!
(परमेश्वर न तो मनुष्यो के कर्तव्य का, न कर्मो का और न कर्मफल के सयोंग का ही सर्जन करता है किन्तु ये सब स्वभाव से ही प्रवर्तित हो रहा हैं!!!)
अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्। तस्मात् कर्मैव कर्त्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः।। शान्ति०10/28
देखिए सारा संसार अपने-अपने कार्यों में लगा हुआ है ।इसीलिए हमें भी अपने कर्तव्य कर्म करने चाहिए। काम न करने वाले को सफलता नहीं मिलती।
कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु। ग्रस्यतेSकर्मशीलस्तु सदानर्थैरकिञ्न।। शान्ति० 139/84 जो अपने लिए हितकर कठोर या कोमल कर्म हो, उसे करना चाहिए। जो काम नहीं करता, वह निर्धन हो जाता है और उसे मुसीबतें घेर लेते हैं।।
कर्मणो ह्वपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विक्रमण:
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:!!!
(कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये क्योंकि कर्म की गति गहन हैं!!!)
स्तु संचरते देशान् यस्तु सेवते पंडितान
तस्य विस्तारित बुद्धिस्टेलेबिंदुरिवंभासि!!!
(भिन्न देशों में यात्रा करने वाले और विदद्वानो के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती हैं जैसे तेल की एक बून्द पानी मे फैलती हैं!!!)
कर्मफल यदाचरित कल्याणी शुभ वा यदि वांशुभम
तदवे लभते भद्रे कर्ता कर्मजमातमन:!!!
(मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता हैं उसे वैसा ही फल मिलता हैं कर्ता को कर्म अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता हैं!!!)
Best Vidya Sanskrit Mein Shlok
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पुज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।
भावार्थ:- विद्या मनुष्य का विशेष रूप है, विद्या गुप्त धन है। वह भोग की दाता, यश की दाता और उपकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है विद्या विदेश में भाई है। ज्ञान एक महान देवता है, राजाओं में ज्ञान की पूजा होती है, धन की नहीं, बिना शिक्षा वाला व्यक्ति पशु है।
संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् ।
समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ॥
जैसे नीचे प्रवाह में बहेनेवाली नदी, नाव में बैठे हुए इन्सान को न पहुँच पानेवाले समंदर तक पहुँचाती है, वैसे हि निम्न जाति में गयी हुई विद्या भी, उस इन्सान को राजा का समागम करा देती है; और राजा का समागम होने के बाद उसका भाग्य खील उठता है ।
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
अर्थात:- जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।
कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥
यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में । अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में ।
पुस्तकस्या तु या विद्या परहस्तगतं धनं ।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥
अर्थात:- जो विद्या पुस्तक में है और जो धन किसी को दिया हुआ है. जरूरत पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न वह धन.
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥
कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोकिला का रुप स्वर, तथा स्त्री का रुप पातिव्रत्य है ।
Disclaimer
यह पोस्ट सिर्फ और सिर्फ ज्ञान बढ़ाने का पर्पस से लिखा जा रहा है। यहाँ अगर किसी संस्कृत श्लोक का अर्थ में किसी प्रकार के थोड़ी बहुत गलती हुई हो। तो आप इसके लिए तो पहले हमें क्षमा कर दे। और उसके साथ ही आप हमें उन अर्थ को हमारे Gmail पर भेज दे। ताकि हम उन्हें सुधार सके।
धन्यवाद😄🙏😄
FAQ on Sanskrit Shlok With Meaning
क्या गीता में सभी श्लोक संस्कृत में लिखा है? और क्यो?
जी हाँ, गीता के जितने भी श्लोक दिए गए हैं। सभी के सभी Shlok Sanskrit में है। क्योंकि पहले महर्षि और ब्राह्मण से लेकर आम पुरुष तक सभी लोग संस्कृत में ही बोलते और लिखते थे। और गीता एक ऐसा पुस्तक है। जो सबसे पुराना है। इसीलिए संस्कृत में गिग के श्लोक लिखे गए। अब इसका हिंदी अनुवाद वाला पुस्तक आपको मार्केट में मिल जाईंगे।
संस्कृत श्लोक जानना क्यो ज़रूरी है?
जब आप Sanskrit Shlok को अच्छे से समझते हैं। तब आपको पता चलता है कि आपके जीवन मे असली लक्ष्य क्या है। जीवन जीने और समझते कि असल क्षमता को आप भागवत गीता Sanskrit Shlok पढ़ने बाद अच्छे से समझ आती है।
आज संस्कृत विलुप्त होता क्यो जा रहा है?
आज के युवा पीढ़ी सोशलमेडिया में डूबता जा रहा है। उन्हें अपने Culture से कोई लेना देना नही है। अब के युवा पीढ़ी को लगता है जो पुराने Culture को मानता है Sanskrit ke Shlok पढ़ता है। वे सब Old Generation के लोग है। और यही सोच के कारण आज हमारे सबसे पूर्णत्व भाषा संस्कृत विलुप्त होता जा रहा है।
Conclusion
अब तक हमने सौ से भी ज्यादा यहाँ Sanskrit Shlok With Meaning की पूरी List ऊपर में दे चुका हूं। उसमे कुछ गीता के संस्कृत श्लोक भी हैं। और साथ ही कुछ ऐसे श्लोक भी दिए गए हैं। जिसको अगर आप अच्छे से समझते हैं। तो वह आपके जीवन को समझने में और भी सरल बनाएगा।
अगर आपको भी कुछ संस्कृत श्लोक जानते हैं अर्थ के साथ। और आपको लगता है कि वह श्लोक को ऊपर इस पोस्ट के लिस्ट में जुड़ा होना चाहिए। तो आप हमे वह श्लोक कमेंट करके भी बता सकते है। हम उसे इस पोस्ट के अपडेट करते समय जोड़ देंगे।
उसके साथ ही यह Sanskrit mein Shlok वाला पोस्ट हमने बड़ी मेहनत से लिखा हैं। इसीलिए कृपया आप इसे अपने उन रिस्तेदारो या दोस्तो के साथ शेयर जरूर करें। जो Sanskrit Shlok या संस्कृत को जानने में रुचि रखता हो।